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सब कुछ शेष / संतोष श्रीवास्तव

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पृथ्वी
सुई की नोक पर टिकी
घूमती रहती है हर क्षण
सागर भी
छलकता ,गर्जना करता
नहीं लाँघता सीमाएँ
तलहटी की
मजबूत नींव में समाया

ब्रह्मांड पूरा टिका है
अपनी परिधि की
बुनियाद पर
गगन अनगिनत गृह, नक्षत्र
तारे सम्हाले औंधा लटका है

इस रहस्य को खोजने
मैं बिना परों के
उड़ने लगी हूँ
जबकि उड़ान की
मेरी दिशा में
बंजर ज़मीन का
एक टुकड़ा
न जाने किस आस में
संग संग चल रहा है
जैसे मेरी उड़ान को
गति दे रहा हो
जैसे मेरे अदृश्य परों से
कुछ बूंद पानी की आस लिए
कि देख सके कुछ अंकुर
फूटे हुए अपने भीतर से

मेरी उड़ान
उस आदिम स्वर को
पहचान पा रही है
जिन्होंने अभी-अभी
स्वर्ण मृग की आस में
प्रवंचना को न्यौता है
जो बेबुनियाद हैं सदियों से
जिन्होंने सरेरात सूरज को
ढलते देखा है
वे खो चुके हैं
अपनी परछाइयाँ
अधर में लटकी हैं
उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ
बिना स्तंभों के उनके महल में
अब गूंजते हैं सन्नाटे
बुनियाद हीन होना
सब कुछ शेष होना है