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सब के सब धूमिल / वीरेंद्र आस्तिक
Kavita Kosh से
दर्पण
सब के सब धूमिल
औंधे मुँह सूरज के हाथों
क़त्ल हुई प्रतिभाएँ
कोइ सूरत क्या देखे
सब बिम्बहीन गँगाएँ
ताने हुए थे इन्द्रधनुष
बिखर गए कुहरिल-कुहरिल
न्यायों की मृगतृष्णा के
प्यासे
वादी, प्रतिवादी
बंदूकों की छाया में
ऊबे-ऊबे अपराधी
तथाकथित रामों की
गुहराएँ
आज के अजामिल
भीड़ों में रस्ते खोए
अनजानों में पहचानें
ख़ुद की तलाश में
बार-बार
आतीं एक ठिकाने
पंथ-प्रदर्शक
मिलते हैं
जेबों में डाले मंज़िल