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सब जग जलता देखिया / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
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शिमला की पहाड़ियों में उतर रही है रात
शिखरों को देवदारु वनों को
टिन की छतों को बाहों में घेरती
अपने ही भार से
काँपती थरथराती सुनसान
कोई नहीं है
कहीं कोई नहीं है
नक्षत्रों में
सौरमण्डलों में
आकाशगंगाओं में
अनंत अंतरिक्ष में
कहीं कोई नहीं है
सब अपनी-अपनी आग में जल रहे हैं
जल रहे हैं सब अपनी-अपनी आग में
अलग-अलग
अकेले-अकेले
आग केवल आग
सब अपनी-अपनी आग मेम जल रहे हैं ।