सब जानते हुए भी / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
मेरी नजरों से
दूर होकर
जीवन जीने की इच्छा रखने वाले
ओ मेरे मीत,
जानते हो
क्यों जग पड़ी हूँ मैं
वह कौन है
जिसने जगा दिया है मुझे ?
तुम नहीं जानते हो प्रिय
मैं जानती हूँ
हाँ, सिर्फ मैं
आखिर यह कैसे हो सकता है
कि तुम जगो
और मैं सोई ही रह जाऊँ।
सच ही तो
हम दोनों
एक दूसरे से दूर होकर भी
दूर कहाँ हैं
कौन कहता है
मैं तुम्हारी नहीं हूँ
दूर-दूर रह कर भी
यह आत्मा की निकटता
मन का आस-पास होना
साथ-साथ तड़पना
क्या यह मिलन नहीं है ?
तुम्हीं कहो प्रियतम
देह ही तो सब कुछ नहीं होती
देह तो एक सहारा है
सिर्फ एक माध्यम
नदी की तेज धारा से
बचाने के लिए
इस पार से
उस पार उतारने वाली नाव
दोनों को मिलाने वाली पुल।
अगर यह देह ही
सब कुछ होती
तो मिट्टी में क्यों मिल जाती ?
इतने पर भी हम
यह क्यों नहीं समझ पाते हैं
कि हमारा यह छटपटाना
हमारा यह तड़पना
हमारे इस रतजगा का क्या अर्थ ?
समझती तो सब हूँ प्रिये
लेकिन यह जो मन है न
इसे कौन समझाए !
कौन समझा पाया है इसे
कौन बाँध पाया है
इस मन को ?
आत्मा का विशाल ज्ञान
मन के अकाट्य तर्को के समक्ष
निरन्तर हारता ही आया है
और यह देह
असमर्थ रही है हमेशा
मन और आत्मा की
लीला भूमि बन कर।
हारती है
जीतती है
सुख-दुख
हर्ष और विषाद
पीड़ा, वेदना, जलन
आशा और निराशा
सब तो
सिर्फ
यह देह ही भोगती है।