सब दाना हम, ज़रा सी ही नादानी है / सुरेश चंद्रा
कागज़ी नोटों पर
मज़हबी चोटों पर
कोठियाँ कोठों पर
बुदबुदाते होंठों पर
सियासत, इबादत, मोहब्बत, हिक़ारत हम-मायने लिखते थे
कसीदे पढ़े जाते थे, ज़मीर पर, ज़हन की बदहाली से
संसद में रसद
जम्हूरियत में हद
आम आदमी का कद
सब फिक्रमंद फ़िकरे थे, जुमले थे
हुक्मरान ख़ास्ता थे, रहम की तंगहाली से
और ये सब, तब होता रहा
आदम जब सबसे पुख़्ता था
नस्ल में, अक्ल में, इंतिखाबी वस्ल में
पर तुम्हें तुम से क्या, मुझे मुझ से क्या
हिंदी की क्लिष्ठ भाषा में
उर्दू की खालिस ज़ुबान में
या मिले-जुले सुर के सम्मान में
रोज की भूख, भरते इंतज़ाम में
अपनी कह-कह के गदगद गुमान में
भाई-चारे में, सब ठीक है, इत्मिनान में
तय तनातनी के तरकश, तीर-कमान में
सब दाना हम, ज़रा सी ही नादानी है
बेहद गहरे मेल मे, ज़रा बेमेल ज़द में हम,
हक़ को, हक़ से लड़ते भारतीय हैं,
हिंदुस्तानी हैं.