सब पर निगाह रखता / हरिवंश प्रभात
सब पर निगाह रखता, वही परवर दिगार है।
असहमत उससे होने का, मुझे पूरा अधिकार है।
मेरी ज़मीन अगर कम है, पर सागर तो बड़ा है,
देखने का आसमां यह, तुमको ही दरकार है।
बड़बोलापन और कुतर्क से, परहेज किया कर तू,
अपनी जमायत है जब, अपनी ही सरकार है।
हर रोज़ उसकी नींद में, क्यों पड़ रहा खलल,
अब लोरी कहाँ माँ की, माँ का कहाँ दुलार है।
सब कहते क्योंकर सावन पर सब्ज़ नदारत है,
फिर भी किसी के अंदर तूफ़ान और ज्वार है।
भले ही ना कोई जानी दुश्मन, ना जिगरी दोस्त है,
बात मगर ऐसी है कि जीना भी दुश्वार है।
किसी और की ज़मीन पर, मकान किसी शख़्स का,
दूसरे का दरख़्त काटने का, पजा रहा औज़ार है।
उम्र कहाँ शेष बची, याद नहीं रही नसीहतें,
वादा रहा कैसा प्रभात, कैसा रहा क़रार है।