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सब बन्द खिड़कियाँ न कोई दर खुला मिला / रंजना वर्मा

सब बन्द खिड़कियाँ न कोई दर खुला मिला
बहती हवा का भी न हमें फ़ायदा मिला

जो जिंदगी को जीते रहे मौत की तरह
उन को ग़मो का रोज़ नया सिलसिला मिला

हमको तलाश दोस्त की भटकाये दर ब दर
दुश्मन बना जो शख़्स वही बारहा मिला

मस्जिद में जा के रोज़ पुकारा किये हैं जो
कोई हमे बताये उन्हें कब ख़ुदा मिला

है खुशबुओं की चाह औ गुलशन अजीज़ भी
लेकिन करें क्या गुल न कहीं भी खिला मिला

गलियों में भटकते न कभी खुद से मिल सके
हमको तो हर बशर है यहाँ गुमशुदा मिला

निभती न दोस्ती है किसी एक शख़्स से
अंदाज़ भी यहाँ तो सभी का जुदा मिला

आयी हैं आँधियाँ फँसी दरिया में कश्तियाँ
पतवार भी नहीं न हमे नाखुदा मिला

मजबूरियों के अक्स तो शीशे में नक्श हैं
अपनी अना दिखे न वही आईना मिला