भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सभी के हाथ जले हैं / शिवशंकर मिश्र
Kavita Kosh से
तुम सौ बार कहो—
मत छूओ आग, हाथ जलेगा
मेरा मन
आग छूने को
हजार बार करेगा!
लाल, सिंदूरी, रेशमी आग
कितना खींचती है हाथ—
मेरी मुद्ठी में नहीं आ जाएगी क्या
सब एक साथ?
क्या तुम्हारा भी हाथ कभी जाला था, माँ?
क्या तुम्हारा भी हाथ कभी
आग से छुआ था?
क्या तुम्हारा भी ऐसा ही मन हुआ था?
ओ पिता?
या तुम ने अपने बड़ों की बात मान ली?
आज तक क्या
वह बात उसी तरह मान रहे हो?
तुम झूठ नहीं बोलतीं, माँ!
सच ही कहते हो, ओ पिता!
आग के आसपास ही हम पले हैं और
और भी सब लोग जो मुझ से बड़े हैं—
सभी के हाथ जले हैं!