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सभी फ़ख़्र करनें लगें तीरगी पर / ओंकार सिंह विवेक
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सभी फ़ख़्र करनें लगें तीरगी पर,
तो गुज़रेगी क्या सोचिए रौशनी पर।
सर-ए-आम ईमान जब बिक रहे हों,
तो कैसे भरोसा करें हम किसी पर।
सुनाते रहे मंच से बस लतीफ़े,
न आए वो आख़िर तलक शायरी पर।
अलग दौर था वो,अलग था ज़माना,
सभी नाज़ करते थे जब दोस्ती पर।
न रिश्वत को पैसे,न कोई सिफ़ारिश,
रखेगा तुम्हें कौन फिर नौकरी पर।
किसी ने कभी उसकी पीड़ा न समझी,
सभी ज़ुल्म ढाते रहे बस नदी पर।
बहुत लोग थे यूँ तो पूजा-भवन में,
मगर ध्यान कितनों का था आरती पर?