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सभी सुखी हों / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
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सभी सुखी हों
यह सपना है, बंधु, हमारा
जात एक है मानुष की
फिर भी क्यों अंतर
मालिक सबका एक -
अलग क्यों हैं पूजाघर
वास उसी का
मस्जिद हो या ठाकुरद्वारा
मिटे फ़र्क़ जो
साहू और भिखारी में है
फूल न करता फ़र्क़
खिला जो क्यारी में है
सच्चा हो
हर शब्द - शाह ने जिसे उचारा
तारनहारी हों इच्छाएँ
करुणा व्यापे
सबके सुख का
महामंत्र घर-घर आलापे
सपना - होवे
जल नदियों का कभी न खारा