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सभी से मैं ने विदा ले ली / अज्ञेय

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सभी से मैं ने विदा ले ली :
घर से, नदी के हरे कूल से,
इठलाती पगडंडी से
पीले वसन्त के फूलों से
पुल के नीचे खेलती
डाल की छायाओं के जाल से।
ब से मैं ने विदा ले ली :
एक उसी के सामने
मुँह खोला भी, पर
बोल नहीं निकले।
हम न घरों में मरते हैं न घाटों-अखियारों में
न नदी-नालों में
न झरते फूलों में
न लहराती छायाओं में
न डाल से छनती प्रकाश की सिहरनों में
इन सब से बिछुड़ते हुए हम
उनमें बस जाते हैं।
और उन में जीते रहते हैं
जैसे कि वे हम में रस जाते हैं
औ हमें सहते हैं।
एक मानव ही-हर उसमें जिस पर हमें ममता होती है
हम लगातार मरते हैं,
हर वह लगातार
हम में मरता है,
उस दोहरे मरण की पहचान को ही
कभी विदा, कभी जीवन-व्यापार
और कभी प्यार हम कहते हैं।

हाइडेलबर्ग, मई, 1976