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सभी / अशोक वाजपेयी
Kavita Kosh से
कमरे में सब कुछ शान्त है
चीज़ें अपने विन्यास में अविचल हैं
बाहर धूप इतनी सुबह दोपहर जैसी चटख़ है
मुटरी बड़बड़ा रही है-
सभी जैसे दम साधे
उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।