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सभ्यता का आतंक / योगेंद्र कृष्णा

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विस्तर पर बिछे सिलवटहीन
सफेद चादर की तरह
सपाट तुम्हारे इस चेहरे में
मुझे अकसर
अपनी सभ्यता का आतंक
और बंजर दिखाई देता है

यह आतंक मुझे
अपने आंगन में उतरी
उस चिड़िया में भी दिखाई देता है
जो मेरे सामने आते ही
डर कर उड़ जाती है

बाग में उगे उस पौधे में भी
जिसकी पत्तियां
मेरे छूने भर से
सिकुड़ जाती हैं

दिन भर की परवाज से
अपने आंगन उतर आई
चहकती उस चिड़िया के साथ
मैं खेलना चाहता हूं

बेमौसम सिकुड़ रही पत्तियों को
प्यार से सहलाना चाहता हूं

तुम्हारे सिलवटहीन सपाट चेहरे पर
बच्चों-सी सहज मुस्कान चाहता हूं

अपने ही आतंक से
बंजर होती इस सभ्यता का
बस अवसान चाहता हूं