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सभ्यता नंगी खड़ी / रविशंकर मिश्र
Kavita Kosh से
सुलगती सिगरेट
उड़ते धुँए के छल्ले
चीखती चेतावनी
पड़ती नहीं पल्ले।
शहर ऊँचे और
बौनी धूप आँगन की
घर उगाना काटकर
जड़ ऑक्सीजन की
सभ्यता नंगी खड़ी है
बीसवें तल्ले।
धधकता सूरज
पिघलता ग्लेशियर का तन
दीखते सच का
समुन्दर क्या करे खण्डन
दे रहे हैं सांत्वना
अखबार के हल्ले।
बारिशों में भीग जायें
प्यास वाले स्वर
आइये हम रोप लें
बादल हथेली पर
इक हरी उम्मीद ओढ़ें
फूटते कल्ले।