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सभ्य शहर में / माया मृग

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गाँव से लेकर आया था, शहर
गर्व लेकर
पं. चिरंजीलाल वेदपाठी के कुल का
कुलदीपक होने का गर्व लेकर !
सारा गाँव जानता था
मैं माथे पर सूरज पैदा हुआ हूँ।
यही असाधारणता-असामान्यता बन गई।

आवाज़ का ओज अशिष्टता कहलाया,
भीतर की ऊर्जा अक्खड़पन
दादा चिरंजीलाल वेदपाठी के
सिद्धांतों की पालना से मूर्ख ठहरा
तो गाँव माणकसर के पहनावे से असभ्य।

चलने से लेकर बैठने तक
बोलने से लेकर सीखने तक की वैयाकरण
क, ख, ग से सीखनी पड़ी
माथे पर पागलपन की तरह सवार गर्व
पिघलकर बह गया
सड़कें कुछ और रपटीली हो गईं।

जिन पर
कभी गर्व को समेटने की
तो कभी रास्ते को नापने की
कोशिश में फिसल रहा हूँ।
इस फिसलन को
पहले दिन हुए-हफते
फिर महीने-साल।
.... और अब तो
सदियां बीत गई।