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समंदर आंखो में समा / विश्राम राठोड़
Kavita Kosh से
समंदर आंखो में समा , सीने में सुलह लगती
कहाँ की ये ज्वाला, जो धरती से निकल पड़ती
निकलते आँसुओं की कीमत, उस विरह को मालूम
है जो एक बूंद गिरे तो भूचाल आता है
निकलती नदियाँ पर्वत से ही, एक ही आस होती है
भटकते रहे दिन भर कंही, शाम को पास होते है...
कुदरत की कहर की गाथा, आज तक कोई समझ नहीं पाया
जंहा पानी कम था वहाँ डूब गई नैया, अधिक में अकाल बन के आया
अकाल के सुकाल में पानी संग मानव हर्षाया
शाबाशी मिली तो इज्जत, सर से निकला तो घबराया
वो तड़पती आंखों भी एक, आस होती है
आँसुओ की क़ीमत , उस मरुस्थल को मालूम है
जो एक बूंद पानी की तलाश होती है
उस तलाश में विश्वास की एक आस होती है
विश्वास की आस में एक अरदास होती है
भटकते रहे दिन भर कंही, शाम को पास होते है