भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समंदर उबल न जाए कहीं / आनंद कुमार द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर एक शाम उदासी में ढल न जाये कहीं
आ भी जाओ ये हसीं वक्त टल न जाए कहीं

रोक रक्खा है भड़कने से दिल के शोलों को
मेरे दिल में जो बसा है वो, जल न जाये कहीं

नज़र में ख्वाब पले हैं, औ नींद गायब है
आँखों-आँखों तमाम शब, निकल न जाये कहीं

उन्हें ये जिद कि वो मौजों के साथ खेलेंगे
मुझे ये डर कि समंदर, उबल न जाये कहीं

आपकी बज़्म में आते हुए डर जाता हूँ
हमारे प्यार का किस्सा उछल न जाये कहीं

जानेजां शोखियाँ नज़रों से लुटाओ ऐसी
रिंद का रिंद रहे वो संभल न जाये कहीं

रुखसती के वो सभी पल नज़र में कौंध गये
अबके बिछुड़े तो मेरा दम निकल न जाए कहीं

रूह से मिल गया ‘आनंद’ जब से ऐ यारों
लोग कहते हैं ये इन्सां बदल न जाये कहीं