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समंदर उबल न जाए कहीं / आनंद कुमार द्विवेदी
Kavita Kosh से
फिर एक शाम उदासी में ढल न जाये कहीं
आ भी जाओ ये हसीं वक्त टल न जाए कहीं
रोक रक्खा है भड़कने से दिल के शोलों को
मेरे दिल में जो बसा है वो, जल न जाये कहीं
नज़र में ख्वाब पले हैं, औ नींद गायब है
आँखों-आँखों तमाम शब, निकल न जाये कहीं
उन्हें ये जिद कि वो मौजों के साथ खेलेंगे
मुझे ये डर कि समंदर, उबल न जाये कहीं
आपकी बज़्म में आते हुए डर जाता हूँ
हमारे प्यार का किस्सा उछल न जाये कहीं
जानेजां शोखियाँ नज़रों से लुटाओ ऐसी
रिंद का रिंद रहे वो संभल न जाये कहीं
रुखसती के वो सभी पल नज़र में कौंध गये
अबके बिछुड़े तो मेरा दम निकल न जाए कहीं
रूह से मिल गया ‘आनंद’ जब से ऐ यारों
लोग कहते हैं ये इन्सां बदल न जाये कहीं