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समंदर और किनारे बोलते हैं / सुनीता काम्बोज
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समंदर और किनारे बोलते हैं
सुनों नदिया ये झरने बोलते हैं
वो अच्छा सामने कहते हैं मुझको
बुरा बस पीठ पीछे बोलते हैं
ख़ता तूने भले अपनी न मानी
तेरे कपड़े के छीटे बोलते हैं
जो सूखे हैं वह ज़्यादा फड़फड़ाते
हवा चलती तो पत्ते बोलते हैं
मैं उनकी ही वफ़ाओं की हूँ कायल
जिसे छलिया ये सारे बोलते हैं
मेरी उनको ज़रूरत ही नहीं है
मेरे अपनों के चेहरे बोलते हैं
न उसकी बात को हल्की लिया कर
तजुअर्बों से सयाने बोलते हैं
नई तहज़ीब सीखी ये कहाँ से
बड़ों के बीच बच्चे बोलते हैं
कभी इस घर में चूड़ी थी खनकती
कि अब टूटे झरोंखे बोलते हैं
तरक़्की को बयाँ ही कर दिया अब
जो इन सड़कों के गड्डे बोलते हैं
तू सारी रात ही रोता रहा क्या
तेरी आँखों के कोनें बोलते हैं