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समकालीन कविता / भारत यायावर

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क्यों नहीं लगती कविता सहचरी-प्रिया

क्यों नहीं बंधुत्व की शिखा जलती

आलोकित करती मन के घर-आँगन

क्यों नहीं विद्रोह पैदा होता गहरी करुणा से

क्यों नहीं यथार्थ के भीतर रागमयता की धार बहती

आप्लावित करती रस-विभोर

कुछ चालू नुस्खों

चालू मुहावरों

और शब्दों के क्रीड़ा-भाव से

उपजी कविता

समकालीनता की मुहर ख़ुद पर लगवा लेती है

और कवि

अपने आस-पास के माहौल में

पसर कर बैठ जाता है

और बैठा रहता है

कोई नहीं पूछता कि ऎसा क्यों है?


(रचनाकाल: 1991)