समझदार पाँव / कुमार विकल
वक्त के साथ
मेरे पाँव बहुत समझदार हो गये हैं
और अब
वे मेरे चाहने के बावजूद
उन घरॊं में नहीं जाते
जहाँ कमरों के क़ीमती कालीन
मेरी बातों से ख़राब हो जाते हैं.
वे उन घरॊं में नहीं जाते
जहाँ लोग
चुप्पी की शलीन भाषा में
कला औ’ साहित्य चर्चाते हैं
और एक अच्छी कविता पर
आधा इंच से भी कम मुस्काते हैं.
वे उन घरों गोष्ठियों में नहीं जाते
जहाँ निर्मल वर्मा की कहानी—
‘डेढ़ इंच ऊपर’ पढ़ी तो जाती है
लेकिन उसके शराबी पात्र का
डेढ़ इंच से अधिक हँसना पसंद नहीं कर पाते .
मेरे पाँव जानते हैं
मैं केवल हँसता ठीक नहीं
गज़ भर लंबे ठहाके लगाता हूँ
और डेढ़ इंच उफर उठ कर
अपनी कविता सुनाता हूँ.
मेरे पाँव जानते हैं—
जब मेरी कविता
ऐसी जगहों में जाती है
हमेशा लड़खड़ाती हुई वापस आती है.
और कीचड़ सनी चप्पलों की भाषा वाली कविता कहलाती है
मेरे पाँव मेरी कविता से अधिक संवेदनशील हो चुके हैं.