समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का / अकबर इलाहाबादी
समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का
'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का
गर शैख़-ओ-बहरमन<ref>धर्मोपदेशक</ref> सुनें अफ़साना किसी का
माबद<ref>पूजा का स्थान</ref> न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना<ref>काबा और मंदिर</ref> किसी का
अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत
रौशन भी करो जाके सियहख़ाना<ref>अँधेरे भरा कमरा</ref> किसी का
अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़<ref>बदले में</ref> नींद के साहब
ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का
इशरत<ref>धूमधाम</ref> जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए
हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का
करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को
सुनिएगा लब-ए-ग़ौर<ref>ध्यान से</ref> से अफ़साना किसी का
कोई न हुआ रूह का साथी दम-ए-आख़िर
काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का
हम जान से बेज़ार<ref>ना-खुश</ref> रहा करते हैं 'अकबर'
जब से दिल-ए-बेताब है दीवाना किसी का