समझ रहा है तिरी हर ख़ता का हामी मुझे / राशिद 'आज़र'
समझ रहा है तिरी हर ख़ता का हामी मुझे
दिखा रहा है ये आईना मेरी ख़ामी मुझे
ज़माँ की क़ैद है कोई न है मकाँ की ख़बर
कहाँ कहाँ लिए फिरती है तिश्ना-कामी मुझे
नहीं कि जुरअत-ए-इज़हार-ए-इश्क़ मुझ में नहीं
तबाह कर के रही मेरी नेक-नामी मुझे
कोई नहीं मिरा सामे इसी में ख़ुश हूँ मैं
कि रास आई बहुत मेरी ख़ुद-कलामी मुझे
मज़ा मिला न कभी मंज़िल-आश्नाई का
कुछ ऐसा कर गई आवारा तेज़गामी मुझे
हसीन चेहरों को तेवरी के बल बिगाड़ते हैं
गिराँ गुज़रती है फ़ितरत की बद-निज़ामी मुझे
शराब-ए-तुंद की तल्ख़ी का ज़ाइक़ा जैसे
पसंद आई हसीनों की बद-कलामी मुझे
नशात-ए-तकया-ए-ज़ानू से सर उठाने तक
सितारा सुब्ह का देता रहा सलामी मुझे
मैं फ़र्श-ए-राह यूँ ही तो नहीं हुआ ‘आज़र’
निढाल कर के रही उस की ख़ुश-ख़िरामी मुझे