भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समतुल्य / संगीता कुजारा टाक
Kavita Kosh से
समंदर उलट रहा था
अपने इतिहास के पन्नों को,
ऐसा कब था
जब दो दरिया मिले थे
और तूफान बाहर की बजाय
अंदर उठने लगा था?
रंग भी
स्वाद भी
लगभग एक से थे?
यह पानियों का कैसा दरिया था
जो उसकी गहराई से ज़्यादा था?
वह ज़वाब ढूँढ ही रहा था
तभी उसे महसूस हुईं
मेरी
दो आँखें!