समन्दर की बेटी / अली सरदार जाफ़री
"हमें हुस्न का मे’यार बदलना है।"
-प्रेमचन्द
जब वह बोझ उठाती है
और टोकरी सर पर रखती है
दो हाथों की कौसे-कुज़ह<ref>लाल, पीले और हरे रंग का इंद्र्धनुष</ref> में
उसकी गर्दन और भी ऊँची हो जाती है
इक तलवार-सी खिंच जाती है
यह गर्दन जो कभी नहीं झूक पाती है
[हाँ शर्माकर झुक जाने की बात अलग है]
यह गर्दन
जो जिस्म के ऊपर
चेहरे के गुलदस्ते को
और होंटों के बर्गे-गुल को
आरास्ता करना जानती है
जैसे कोई दस्ते-हिनाई
नाज़ो-अदा से इश्को़-जुनूँ को
हुस्न का तुहफ़ः पेश करे
दरियाओं की सिमटती चाँदनी
सोने जैसी धूप में जगमग, जगमग करती
सड़कों और गलियों से ऐसे गुज़रती है
जैसे कोई मग़रूर जवानी
अपने बदन पर, अपने बदन कि किरनों का पैरहन पहने
बहक रही हो
उसकी चाल में फ़ितरी लोच हवाओं का
पानी की लहरों की रवानी
उसका सीना बोझ से नीचे
और उभर कर
चाँद और सूरज पर हँसता है
उसकी भौंओं की शोख़ कमानें
तन जाती हैं
कूल्हे और कमर की जुम्बिश
रानों से पैरों के तलवों तक बल खाती चली जाती है
उसमें है रफ़्ताते-ज़माना की बेबाकी
जो सदियों से ताजो-तख़्त को ठुकराती
और महलों को क़ब्रों में सुलाती
रवाँ दवाँ है
ऊँची एडी़
हिरनखुरी की जूतियाँ पहने
उचक-उचक कर चलनेवाली दोशीजाएँ
घबरा कर पीछे हट जाती है
और मछेरन अपनी चाँदी, अपना सोना
सर पे उठाये
आगे बढ़ जाती है
उसके बालों और बालों में सजे हुए फूलों की खु़शबू
चारों सिम्त बिखर जाती है
दूर से एक आवाज़ आती है
मछली ले लो
मछली ले लो
रोज़ सहर को
नीले साहिल की यह नीलम-पैकर<ref>नीलम-सी देह वाली</ref> बेटी
रंगे-शफ़क़<ref>उषाकाल की लालिमा</ref> से ज़ाहिर होकर
शाम तलक
फिर रंगे-शफ़क के पर्दे में छुप जाती है
और समन्दर गीत सुनाता रहता है
मैंने अजन्ता की आँखों में
उसको फ़ुरोज़ाँ देखा है