भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समन्दर ढूँढ़ रहा है पानी / मुन्नी गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समन्दर
ढूँढ़ रहा है पानी
समन्दर भर नहीं
प्यास भर ।

समन्दर
ढूँढ़ रहा है छाँव
आसमाँ भर नहीं
नज़र भर ।

समन्दर
ढूँढ़ रहा है जीवन
रेगिस्तान भर नहीं
बून्द भर ।
 
समन्दर
ढूँढ़ रहा है ज़मीन
पृथ्वी भर नहीं
पाँव भर ।

समन्दर
ढूँढ़ रहा है निरन्तर
पानी, छाँव, जीवन, ज़मीन

फैल रहा है निरन्तर
अपनी बेचैनी में
अनवरत संघर्ष जारी है
समन्दर के भीतर

उसे शायद
किसी बुद्ध की तलाश है
जो उसे
जीवन का गूढ़तम पाठ समझा सके ।