समन्दर मेरे बादबानों में सोया हुआ है / जावेद अनवर
मैं याद करता हूँ उस याद को जो कहीं भी नहीं है, किसी की नहीं है, फ़क़त याद है मैं जिसे याद करता हूँ, अन्दर उदासी है, बाहर उदासी है और सेब के पेड़ पर कोंपलें फूटती हैं तो ख़ुशबू की रथ में ना तुम हो, ना वो गीत हैं जिनकी लय में बहारों के दुख की ख़ुशी है, ख़ुशी की उदासी है, बर्फ़ों में सुराख़ करती हुई कोंपलें हैं कि सूरज नहीं है ये सूरज का साया है सूरज तो मशरिक़ की मिट्टी जलाने पे मामूर है,
याद है और काग़ज़ है, ख़त लिख रहा हूँ जिसे पोस्ट करने की नौबत नहीं आएगी, मुझको मालूम है, तुमको मालूम है तुम नहीं जान पाओगे क्या बात थी जिसके रस्ते की दीवार क़ुरबत थी और जिस पे दूरी की मिट्टी पड़ी है, मैं अन्दर ही अन्दर ख़ुदा हो चुका हूँ, मेरे आसमानों पे मैं हूँ ना तुम हो, मैं अपनी तलब से जुदा हो चुका हूँ मगर सातवाँ दिन कुल्हाड़ी के, हल के, गरारी, मिलों, हस्पतालों, घरों, बीवियों, रेस्तोरानों के, अख़बार, टीवी, ख़बर, नाख़बर,जँग, जमहूरीयत, बादशाही, मक़ाबिर, मसाजिद, कसीनो के, शाही महलों के पीछे कहीं भी नहीं है, तलब ही नहीं है,
मुझे नोचती है तलब की, उदासी की, ख़ाहिश की ख़ुशियों की, ख़ाबों की, यादों की जो याद मुझसे रिहा हो चुकी है, हवा हो चुकी है वो तितली जो तुम थे, तो क्या है ये सब कुछ, ये सिगरट, ये व्हिस्की, ये बादल का टुकड़ा जो तुम तक ना पहुँचा, समुन्दर मेरे बादबानों में सोया रहेगा........!!!