हे विश्वरूप 
अर्जुन ने देखा  
दैदीप्यमान तुम्हें 
तुमसे ही थीं दशों दिशायें 
प्रकाशित इस तरह 
जैसे उग आए हों हजारों सूर्य क्षितिज पर
तुम ही व्याप्त दिखे 
सारे आकाश सारे लोक 
और बीच के सारे अवकाश में 
 
हे स्वप्रकाशित
हम पहचाने नहीं तुम्हें
जब तुम सशरीर थे 
आज भी तुम अशरीरी को 
नहीं पहचानते हम 
 
हे परम चेतना !
दैदीप्यमान तुम 
दसों दिशाओं को 
करते प्रकाशित 
और प्रकाश देखा मात्र अर्जुन ने 
शेष अठारह अक्षौहिणी
कैद रहे अपने-अपने अन्धकार में 
सूरज खड़ा इंतज़ार करता रहा
वही अठारह अक्षौहिणी 
जो सूरज को प्रतीक्षा कराते हैं 
फ़ैल गए हैं सारे संसार में 
वही तो हम हैं
आज भी चक्षु नहीं हैं हमारे पास
हमें दृष्टि दान 
क्यों नहीं देते 
हे गोविन्द ?