समय-सन्दर्भ / स्वदेश भारती
चुपचाप बीत जाती रात
और उजाले से स्नान किया हुआ प्रभात
अपनी शुभ्र कान्ति-देह पर
भीड़ भरी दिन-चर्चाओं का आवरण ओढ़े
चलता है
जीवन-प्रक्रिया भीड़ के साथ
चुपचाप-चुपचाप बीत जाती रात
और इसी तरह हमारे सपने भी
अपनी गठरी से स्मृतियों के एक-एक चीथड़े निकालते हैं
भीड़ भरी आशाओं के फुटपाथ पर
दुकान सजाते हैं
और अपने मोल-भाव की कुशलता से
कुछ न कुछ लाभ उठाते हैं
घाटा सहते हैं
अन्धकार घिरने के साथ-साथ
माल-पत्र सहेज कर
इच्छाओं के सन्दूक में रखते हैं
सहते हल्ला-गाड़ी-समय का घात-प्रतिघात
चुपचाप चुपचाप बीत जाती रात
उफनता रहता समुद्र
लहरों की हथेलियों पर लिखता जाता
अनगिन शब्द-गीत छन्द
मौसम बदलते तेज़ी के साथ अपने रास्ते
नदियाँ बदलती प्रवाह
और बर्फाच्छादित पर्वत पर
अचानक ही लग जाती आग
अभिलाषा के अलिंगन हो जाते
कमल कोरकों में बन्द
और ऐसे ही बीत जाती मनुष्य की
संघर्षरत अन्धेरी रात
चुपचाप चुपचाप
कलकत्ता, 22 मई1992
लीजिए, अब यही कविता अँग्रेज़ी में पढ़िए
Swadesh Bharati
In the Context of Time...
The night passes quietly, silently
And the dawn washed in the sunlight
Covered with crowded news moves on with
it's brilliant figure within
The crowded process of existence forward...
The night passes silently.
Likewise, our dreams bring out the truth
rags of reminiscences one by one
lay out their makeshift shops on
crowded foot-paths
and despite with their lust of regaining
make some profit, losses, more or less
and as darkness sets in they endure
the police action to clear foot-path
Before the goods are boxed
in desire's go downs
the night passes quietly
The sea surges & swells on writing
count, lyrics verses-stanzas on
The palms of waves;
The seasons change
imperceptible, swiftly on their own
even the rivers change their courses.
the snow-clad mountains are fired suddenly
And the black bees are confined in lotus buds
likewise, dark nights of struggling humans
passes on quietly....
Calcutta, 22nd May, 1992.