समय और बचपन / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर
(चिंपुड़ा के लिए)
उसने मेरी कलाई पर
"टिक-टिक" करती घड़ी देखी
तो मचल उठी, वैसी ही घड़ी पाने
उसका जी बहलाते
स्थिर समय की एक खिलौना घड़ी
बांध दी उसकी नन्ही कलाई पर
पर घड़ी का खिलौना मंजूर नहीं था उसे
"टिक-टिक" बोलती
समय बताती
घड़ी असली
हठ में उसके थी मचल रही
अडिग था मैं विचार पर अपने
डटी थी वह ज़िद पर अपनी
स्वीकार नहीं था मुझे
कि यह समय उसे छुए
और बचपन उसका
तेज़ धार में बह जाए
कितना कायर था यह विचार
(और प्राकृतिक तो ज़रा भी नहीं)
इस बर्बर और आतंक भरे समय में भी
खिलेंगे नए फूल
उगेंगे पंख नए
यह खिलना और उगना
हर आतंक की हार है
इसी उम्मीद ने
डर से लड़ना सिखाया
और उसकी नन्ही कलाई पर अब
"टिक-टिक" बोलती घड़ी असली
फूल की तरह खिल रही है
और समय को नए पंख आ रहे हैं।