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समय और मेरी कहानी-2 / अशोक शाह

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चलो सुनाता हूँ अपनी कहानी
भौतिक इस जीवन की
समय में खोती हुई
समय की ही जु़बानी-


गढकर कल्पना के सबूतों से
मैं नहीं कह सकता
कि मैं वास्तविक हूँ
और
बिना सबूतों के
यह भी नहीं बता सकता
कि मैं काल्पनिक हूँ

नहीं जानता-
वास्तविकता और काल्पनिकता का अन्तर
समय की गणना से लेकर आज तक का
मनुष्य होने का पूरा सारांश
नहीं जानता एक साथ

मुझे नहीं याद
शून्य में हो सकता है विस्फोट
और उत्पन्न हो सकती है आवाज़
जो सुनी गयी बहुत पहले
तब मेरी स्मृति का नहीं हुआ था प्रादुर्भाव

नाद रूपान्तरित यह ब्रह्माण्ड है
गैस, पत्थर, पानी और जीवों में
अनगिनत आकारों में
कौन-सा आकार हूँ

याद नहीं
शून्य का कौन-सा हिस्सा,
आवाज़ की कौन-सी आवृत्ति
जमकर हुई तरंगदैध्र्य
नभ का प्रथम परमाणु
ब्रह्माण्ड की किस चट्टान से रिसकर
संभूत हुई
पानी की पहली बूँद
नहीं जानता

और जब बना पहला एककोशीय जीव
जिसे बहुत बाद में अमीबा कहा गया
वह मरा नहीं
बहुकोशिकीय बना- शैवाल, दूब, वृन्दा, वृक्ष
मछली, कछुआ, सुअर, बन्दर, नरसिंह

अंतरिक्ष में रहते हुए परमाणु
पहचानता है एक दूसरे को
पानी की एक बूँद की घनिष्ठ है
परस्पर मित्रता
जानता है वृक्ष हवाओं को
पत्तों के इशारों से करता सरगोशियाँ
दक्षिण अफ्रीका से लेकर साईबेरिया तक

मुझे तो अब याद भी नहीं
प्रशान्त महासागर में केप हार्न के समीप
जब मैं मछली था
तब पानी के बुलबुलों के द्वारा
कैसे की थी बात आर्कटिक के अपने दोस्तों से
                                                             
पच्चीस लाख वर्ष पहले
धरती का सीधा खड़ा पहला मानव-रुप
मैं ही था
वहीं से षुरू हुई समय की पहली इकाई
पर मैंने आगे नहीं, सीखा गिनना पीछे
मेरा समय पीछे से शुरू हुआ
जिसे अब तक बटोर नहीं पाया

आज भी समय के साथ नहीं मैं
जब तक घुटने पकड़कर खड़ा होता हूँ
ढलकर वह क्षितिज हो जाता है
पीछे मेरे लहराता रहता अतीत का अपरिमित समन्दर
दिनों-दिन गहरा होता हुआ

आठ लाख वर्ष पहले
जब मैंने खोजी थी आग
भोजन की विविधता पा हो उठा था धन्य
आग बन गयी मेरे हाथो की शक्ति-स्रोत
जंगलों को जलाया, सिंहों को भगाया

पके हुए भोजन के कारण
घट गई मेरे आँतो की लम्बाई
पर बढ़ने लगा धीरे-धीरे मेरे मस्तिष्कीय आकार
और फिर होने लगा विचारों का जन्म
मैं जान गया आग
पत्थरों में छिपी
लकड़ियों के रेशों के बीच तनी

आग है
दो परमाणुओं के बीच
अन्न जल धरती आकाश में
जिस आविष्कार ने दी सबसे अधिक खुशी
वह आग ही है

आग में पका भोजन खाने से अधिक
नहीं है कुछ भी और सुकूनदेह
और इस सुकून से ही महसूसा
सत्तर हजार साल पहले
अनुभूत ज्ञान

साथ उसी के आयी कल्पना-शक्ति
और मैंने रच डाला ईश्वर, धर्म, संस्कृति
देखी-अदेखी सारी प्रकृति को पहना दिया
विचारों का आवरण
रच डाला पृथ्वी पर
घृणा, हिंसा, राग-द्वेष

तब महाविस्फोट के बाद चिम्पाजी के मुँह से
पहला झूठ मैंने ही बोला था-
‘‘शेर आ रहे हैं”
और खा लिया था सारा भोजन
अपने सहयोगियों के द्वारा किया इकट्ठा

अनुभूति और कल्पना मेरी पहली जीत थी
पृथ्वी पर
हार गये शेर
हवा की तरह फैल गया धरती पर
मेरा साम्राज्य
अफ्रीका से आईसलैण्ड तक

बना डाला परिवार, कबीला, साम्राज्य और तंत्र
चर्चो, मन्दिरों, मस्जिदों से आगे
गढ़ दिया राष्ट्र और देश
और अब प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी
जिसका अस्तित्व कुछ भी नहीं
पर है कुबेरों का घर

दस हज़ार वर्ष पूर्व जब सीखा
बोना गेहूँ का बीज
धरती की बदल डाली सभ्यता मैंने
कृषि-क्रांति धरती का
क्या सबसे बड़ी धोखा थी
जिसके जाल में फँस गया मैं
खुद ही उलझकर ?

क्या मैंने गेहूँ पाला
या गेहूँ ने मुझे ही
पालतू बना लिया

छिन ली स्वतंत्रता घूमन्तू-शिकारी की
भोजन की सुरक्षा में
हो गया रहने को मजबूर
दीवालों के भीतर

गेहूँ ने बढ़ायी अपनी संख्या
लाखों किलोमीटर में
और मैं होता गया
सौ से हजार फिर लाख-करोड़

गेहूँ की सहूलियत ने
बना दिया मुझको
हिंसक अधिक विलासी निष्क्रिय

विलासिता की कल्पना में
मैं तोड़ता गया पत्थर
बनाता गया खेत
चिलचिलाती धूप में
सींच गया पौधा
ढोकर सिर पर बाल्टी
होता गया और दुःखी
जितना उगा पाता गेहूँ
कहीं उससे अधिक गेहूँ
उगाने लगा खाने वाले मुँह

छोड़कर अंजीर का पेड़
घूमन्तुओं की तरह अब
नहीं भर सकता था कुलाचें
बँध गया मोह में
अपने घर-खेत के
उसलिए मारे जाने लगा
अपने पड़ोसियों के आक्रमण में
और अक्सरहा आकर महामारियों की चपेट में

छोड़कर विविधता पौष्टिक भोजन की
संपन्नता कन्द-मूल-फल-अन्न-मांस की
मैंने किया दुःखों का भण्डारण
केवल गेहूँ के दानों के कारण
होकर कमजोर और निरीह
सुरक्षा की चाह जरा-सी
जो अब तक मुकम्मल हो नहीं पायी
औद्योगिक और डिजिटल क्रान्ति के बाद भी

उस समय को मोड़ने का
कौन है दोषी उस चूक का
गेंहूँ या धार्मिक अन्धविश्वास ?
जिसने किया मजबूर
तराश कर पत्थरों को
करने मंदिरों का निर्माण
जिस अभिशाप की पूर्ति के लिए चाहिए
गेहूँ, और अधिक गेहूँ


गेहूँ, ने कर दिया मुझे अथक श्रम से मुक्त
कल्पना के पंख पहन उड़ता गया उन्मुक्त
मेरे विचारों के रेशे-रेशे में
क़ाग़ज पर किये हस्ताक्षर की तरह
चिपक गयी कल्पना
प्राकृतिक दुनिया से लगभग निकलकर
कब डूब गया काल्पनिकता में
पता नहीं चला

तब मुझे क्या पता था
उन आदिम चट्टानों के कण-कण में
छिपी थी कल्पना की परतें
और जब बाहर आइं विचारों की तरंगों में
टकराकर मेरी मस्तिष्कीय कोशिकाओं से
गढ़ने लगीं थीं दुनिया के भीतर दुनिया
अनेक दुनिया समानान्तर

औद्योगिक क्रान्ति हो सकती है
दूसरी बड़ी बेवकूफ़ी मेरी
खुद को ही बेचा अपने ही हाथों सें
सपनों का बाज़ार बनाया
सबसे सुन्दर, रुपये का , आकार बनाया
कितना क्रूर हो सकता था मैं
न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, अमेरिका में
या यूरोप की बौद्धिक भूमि में
जो भी थे मौलिक , निर्दोष
उनका ही कत्ल किया, मार गिराया
संचय कर अकूत दौलत
बन गया षातिर निवेशक

पानी, हवा और चावल के दाने की तुलना में
कब घोषित कर लिया खुद को समझदार
यह बताना नहीं चाहता
‘समझदारी’ मेरी हो सकती है बेवक़ूफ़ियाँ
मेरे सिवाय इस धरती पर आज
है भी कौन
जो कह सके
सत्य को सत्य, झूठ को झूठ

मैं जानता हूँ अपनी सुरक्षा के लिए
मेरा गढा ईश्वर
सबसे बड़ी कल्पना है
लेकिन वही है मेरी सबसे बड़ी कमजोरी
मेरी मौत का जिम्मेदार

बहुत घातक है
ईश्वर के आगे का नहीं सोचना
इसमें नहीं कोई समझदारी
पुरानी गाड़ी को चलाते जाना

इस ईश्वर ने मौत के समझ
ला खड़ा किया है मुझे
लेकिन कोई तो मुँह खोलो और बोलो
कि मृत्यु जीवन की आखिरी पायदान नहीं
और न है अवश्यम्भावी

मृत्यु जीवन का नियम है तो
अपवाद जरूर होगा इसका भी
जिसे मैं नहीं जानता
यही अनभिज्ञता ही तो मेरी ताकत है
जानने का एक अवसर अभी तो बाकी है

मैं हूँ मनुष्य
स्वीकार नहीं मुझे वह नेति -नेति वेदना
नैतिक यही मेरे लिए
जानूँ इसको इति इति

जाना जो अब तक है
वह मेरी लघु सीमा है
और जो जानना बाकी है
मेरे जीने की वही सम्भावना है
 
एक सीमित दायरे में जीने का
अब ना रहा गुमान कोई
आदमी बनकर यह ज़िन्दगी
जैसे यही ठहर गई है
आगे धरेगी कौन-सा रूप
यह मालूम नहीं
ठीक वैसे ही जैसे
मिट्टी कब बीज बनी थी
पता नहीं चल सका था

जानता हूँ अब मैं
पत्थर की लकीर-सा
अमिट कुछ भी नहीं मुझमें
बुद्ध का आप्तवाक्य नहीं
किसी प्राचीन ग्रन्थ की पथराई वाणी भी नहीं
किसी आलीशान महल की नींव में
असमय दबा दिया गया वक़्त का पत्थर भी नहीं
जो खूबसूरत फूल-सा खिलने से रह गया

इतिहास के पन्नों में दर्ज सुघड़ साक्ष्य मूर्ति नहीं
जो देखती रह गयी धरती के सीने को बखोरता
निकलता गया निर्विरोध
समय का खूँखार पहिया

समय का अंतहीन पहिया यूँ ही घूमता जाएगा
पर
धरती पर पैदा होकर मर जाने का मैं सबूत नहीं