समय कभी था ही नहीं तेरे उपवन में / प्रवीण कुमार अंशुमान
दीवाल पर टंगी घड़ी को देख,
उसे समय का पहिया मत समझ लेना;
ये तो बस एक गति का गुलाम है,
इसमें ज़िन्दगी का नहीं होता परिलक्षित कहीं नाम है;
असल ज़िन्दगी का पहिया तो घिसता है,
पंचर भी होता है, और एक दिन फट भी जाता है;
वैसे तो बंद घड़ी भी दो वक़्त सही समय बताती है,
पर ज़िन्दगी की घड़ी तो, हर घड़ी बस सताती है;
ये वक्त भी ना, कितना बेवक्त होता है,
कभी तेज, तो कभी तान के सोता है;
जी करता है कि पूछ लूँ आज समय से,
कब ठहरेगा तू, कब शान्त होगा पूरे मन से;
और फिर आश्चर्य से समय मुझसे बोल पड़ा,
कि तू मुझे कहाँ-कहाँ ढूँढ़ता है?
बार-बार किस ओर, मुझे खोजता है?
तू खुद क्यूँ नहीं जाता है ठहर,
बस यहीं पर, बस इसी पहर;
क्यूँ भटकता है तू हर दिन शहर-शहर,
क्या तुझे नहीं होता महसूस मेरा कहर?
एक बार ज़ोर से कह दे अपने मन को,
रुक! ठहर जा! कहीं नहीं है यहाँजाने को;
बस एक बार तू देख, अपने शांत मन में
‘समय कभी था ही नहीं’, तेरे उपवन में ।