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समय कभी नै बूढ़ोॅ होय छै / जटाधर दुबे

Kavita Kosh से
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कौन भॅवर में दोस्त
जिनगी आपनोॅ फँसलै,
निर्मल पानी केॅ प्रवाह ने
धोखा देलकै!

'पासपोर्ट साइज' फोटो से
बीतै छेलै वहाँ जिनगी दिन,
शहरोॅ में एनलार्ज करैथैं
कुछ धुंधला-धुंधला भै गेलै,
फोटोग्राफी ठीक नै छेलै!
फेर खिंचावै पड़तै फोटो,
जिनगी के कुछ नै ढंग
पड़तै सीखै लेॅ!

जहाँ समय्ये ठहरी जाय छै
वहाँ समय केॅ साथेॅ
चलै के बाते की छै!
यहाँ समय तेॅ भागलोॅ जाय छै,
भागोॅ भागोॅ।
समय कभी नै बूढ़ोॅ होय छै,
तहूँ समय के साथें
मिलाय केॅ क़दम चलोॅ तेॅ
तहूँ कभी नै बूढ़ोॅ होभेॅ,
जों कखनी पीछू पड़ि जैभेॅ

कोय नै पीछे मुड़ि केॅ देखथौं
धूल उड़ैतें समय रोॅ कारवाँ
चललोॅ जाय छै
ढंकि जैभै ओकरे गुबार में।

अर्थ बूझै ली
केवल शब्दोॅ पर नै जैह्योॅ,
श्रोत आरो परिवेश बदलतैं
अर्थ बहुत ही बदली जाय छै।
व्यक्ति तेॅ बौना भै गेलै,
हर कोशिश के एक ध्येय छै,
कुर्सी पर कैसैं चढ़ि जैये,
पर कुर्सीयें ओकरा गिरावै छै॥

अपनोॅ अपनोॅ खोली में जे बन्द रहै छै
ओकरा से उन्मुक्त हँसी के आशा कैसें!
केवल दाना खोजै लेॅ ऊ बाहर जाय छै।

प्रेम गीत आबेॅ भूललोॅ जाय छै
पानी के निर्मल प्रवाह से
डर लागै छै!
कौन डगर में दोस्त
जिनगी अपनोॅ पड़लै
समतल सड़कोॅ से
आँखी ने धोखा खैलकै॥