भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समय का हाकिम / उर्मिल सत्यभूषण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेकल होता है जब मेरे मन का कीर
मेरे गीतों में बहती है मेरी पीर
ज्वालायें पी-पीकर मैंने
युग का दर्द सहा था
भीतर-भीतर जाने कब से
लावा धधक रहा था
वो ही अब फूटा बनके नेह का नीर
मन मंदिर पर डाले
मैंने पर्दे भारी-भारी
लेकिन अंधियारे से
सूरज की किरणें कब हारीं
है आया उजाला, उतरे जब ये चीर
समय का हाकिम
मेरे जख़्मों को सहलाने आया
मेरे शीशे के घर में
श्रद्धा का दीप जलाया
रे, हरसू देखी, मैंने मेरी तस्वीर
पांवों में पंछी के पर हैं
डगर सरल लगती है
छम छम नाचूं, गाती जाऊँ
पायल सो बजती है
कल तक लगती थी पांवो की जो जंजीर
आसमान गूंजेगा तेरी
करुण कराहों से
पिंजरा जल जायेगा
तेरा, तेरी आहों से
ओरे, ओ सुगना छोड़ न देना तू धीर।