भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समय की चादर / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
Kavita Kosh से
अभी समय की चादर को बिछाया है
दिन के तकिए को सिरहाने रखा है
जि़ंदगी का बहुत सा अधबुना हिस्सा यों ही पड़ा है
शहर में किस को मालूम है
अधबुनी जि़ंदगी कितनी कीमत मांगती है
कोई नहीं बताता प्यार के धागों का पता
अपने शहर को प्यार की खुमारी से देखते हुए
एक अजनबी की मुस्कान में मिलते हैं प्यार के धागे
जि़ंदगी ने अपनी मुस्कान को पूरा कर लिया है
आज दिन के तिकए पर सिर रख कर
जि़ंदगी समय के चादर पर सो रही है