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समय की चादर / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

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अभी समय की चादर को बिछाया है
दिन के तकिए को सिरहाने रखा है
जि़ंदगी का बहुत सा अधबुना हिस्सा यों ही पड़ा है

शहर में किस को मालूम है
अधबुनी जि़ंदगी कितनी कीमत मांगती है
कोई नहीं बताता प्यार के धागों का पता

अपने शहर को प्यार की खुमारी से देखते हुए
एक अजनबी की मुस्कान में मिलते हैं प्यार के धागे
जि़ंदगी ने अपनी मुस्कान को पूरा कर लिया है

आज दिन के तिकए पर सिर रख कर
जि़ंदगी समय के चादर पर सो रही है