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समय की धारा / सुदर्शन रत्नाकर

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तुम कहते रहे
आओ दोनों बैठें
सागर के किनारे
हाथ में हाथ डाले
एक दूसरे को निहारें या
देखें उगते-डूबते सूर्य की किरणें
सागर के वक्ष पर
पल पल रंग बदलती
उठती-गिरती लहरें
पर मैं अपने मन के,
तुम्हारी इच्छा के पल
कहाँ जी पाई
और उम्र क़तरा-क़तरा कर
गुज़रती गई
कर्तव्य के बोझ तले
दबता रहा प्रेम।
समय तो बदल गया है
अब मैं ढूँढती हूँ तुम्हें
लहरों में
उदय-अस्त होते सूर्य की किरणों में
मंद मंद बहती हवाओं में
नदी के संगीत में
पत्तियों की थिरकन में
ओस की बूँदों में
पर तुम कहीं भी नज़र नहीं आते हो
समय की धारा तुम्हें
बहा कर जो ले गई है।