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समय की व्यूह रचनाओं में उलझे / जहीर कुरैशी

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समय की व्यूह रचनाओं में उलझे
सब अपनी-अपनी विपदाओं में उलझे

उन्हें परलोक का भय हो रहा है
हम इस दुनिया की चिंताओं में उलझे

धरम और जाति के झगड़े टले तो
अचानक लोग भाषाओं में उलझे


ये ज़ाहिर है महाभारत कथा से-
पितामह अपनी निष्ठाओं में उलझे

कभी वो मन मुताबिक बह न पाए
जो जल की तेज़ धाराओं में उलझे

अचानक मीठी निंदिया टूटते ही
वो सपनों की समीक्षाओं में उलझे

असुविधाओं में उलझे हैं करोड़ों
हैं लाखों लोग सुविधाओं में उलझे