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समय के बहाव में / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

दोस्त छूटे
रिश्ते-नाते छूटे
खाना-पीना छूटा
शौक छूटे
धीरे-धीरे
छूट रहा है सब
फिर ये किस आधार पर
जीवन चल रहा है?
ये किस धागे से
ब्रह्मांड लटका है?
ये किस धुरी पर
सब घूम रहा है?
कहाँ तक फैला है यह फैलाव?
कितने सौरमंडल
कितनी आकाशगंगाएँ
कितनी नीहारिकाएँ
ग्रह, उपग्रह, सितारे, पिंड
साथ-साथ और अलग-अलग
अपनी-अपनी परिधियों में
कागज की नाव जैसे
सागर में थपेड़े खा रहे हैं
कभी भी,
किसी भी क्षण गलकर
चिथड़े-चिथड़े हो जाने के लिए
तब मुझ जैसे तुच्छ की
इतने बड़े फैलाव में
क्या औकात
बस एक रेत का कण
समय के बहाव में फँसा हुआ।