भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समय ठहर गया है जैसे / अरविन्द श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समय ठहर गया है और
पत्ते ज़र्द पड़ चुके हैं
मुह मोड़ लिया है उत्सवी खबरों ने
मुसलसल हो रही घटनाओं ने
किसी कोमल, मुलायम नज़्म पर
हमला किया है कातिलाना
 
समय ठहर गया है और
खिलने को बेताब हैं
पंखुड़ियाँ गुलाब की
एक शावक कुलाँचे मारना चाहता है
अभी-अभी

समय ठहर गया है जैसे
किसी चित्रकार ने जड़ दिया है
किसी लड़की को फ़्रेम में
जैसे किसी बोरसी के पास
सो चुका है कुत्ता
 
समय ठहर गया है जैसे
टाइपराइटर पर थक चुकी है अंगुलियां
और सवालात जस के तस पड़े हैं
किसी हरकारे की प्रतीक्षा में !