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समय भला कब ठहरा है / छाया त्रिपाठी ओझा
Kavita Kosh से
कुछ भी कर डालें हम लेकिन
यह समय भला कब ठहरा है।
केवल खेल खिलाने आता
कभी हंसाता कभी रुलाता
एक यही है शक्तिमान बस
दुनिया का है यही विधाता
लेकर बसुधा से अंबर तक
सिर्फ इसी का ही पहरा है।
कुछ भी कर डालें हम लेकिन
समय भला कब ठहरा है।
सुख-दुख को पहचान रहे हम
अपना दूजा जान रहे हम
गिरकर उठकर संभल संभलकर
लक्ष्य नया नित ठान रहे हम
जब तक यह है साथ तभी तक
सांसों से रिश्ता गहरा है।
कुछ भी कर डालें हम लेकिन
यह समय भला कब ठहरा है।
खुशियां ग़म सब लेकर चलता
और यही जो भाग्य बदलता
इसके ही सब ताने-बानें
मन चाहे जब जिसको छलता
सुनता नहीं किसी की कुछ भी
सच में यह बिल्कुल बहरा है।
कुछ भी कर डालें हम लेकिन
यह समय भला कब ठहरा है।