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समरस / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
मैंने आज न पहले भी अपने पर अभिमान किया !
जब जीवन-नभ में चमका
मैं स्वर्ण-सितारा बन कर,
सब की मुझ पर आँख उठी
देखा जब ऐसा अवसर,
पर, मैंने न कभी अपने क्षणिक-सुखों का गान किया !
अंतर में समझा होता
इस उन्नति का मूल्य अगर,
गर्वीली रेखाएँ आ
बरबस छा जातीं मुख पर,
पर, लोचन झुक-झुक जाते, सुन मैंने बलिदान किया !
1944