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समर्पणों की भाषा नहीं होती / महेश सन्तोषी

मेरे शब्द तुम्हें खोजते रहते हैं!

ऐसा तो नहीं है कि तुम
परिचय और अपरिचय के बीच
कहीं खो गयी हो?
तुम तो प्राणों के पास हो
साँसों की अस्मिता में रह रही हो,
एक ऐसी सृष्टि हो तुम,
जो एक जीवित अनुभूति-सी लगती है,
एक ऐसी अनुभूति हो तुम
जिसके लिए सारी सृष्टि तरसती है,
अन्तर तो दो अस्तित्वों के हैं
अन्दर से तो हम एक से है!
मेरे शब्द तुम्हें खोजते रहते हैं

हर अक्षर तुम्हें छूता-सा लगता है,
पर अक्सर तुम अछूती,
अनछुई रहती हो,
स्पर्शों की ऐसी कोन-सी कविता हो तुम?
कि जिसका हर स्पर्श ही एक
नयी अभिव्यक्ति हो,
कभी तुम बाँहों की
माँसल सीमाओं में मिलती हो!
तो कभी अस्तित्व की
अनन्यतम असीमतओं में,

देहों के बन्धन पूर्ण होते से लगते हैं,
जब तुम मिलती हो,
अपनत्व की अपरिमित थाहों में
समर्पणों की कोई भाषा नहीं होती,
अभाषित अर्थ भरे रहते हैं!
मेरे शब्द तुम्हें खोजते रहते हैं!!