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समर्पण / मोहन सगोरिया
Kavita Kosh से
पाषाण शिला ज्यों धँसी
दूब में
बदली छाई
घिर आई
साँझ... गहराई
चूमा माथ
लगा ज्यों
झुक गया आकाश।