भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समर्पण / मोहन सगोरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पाषाण शिला ज्यों धँसी
दूब में

बदली छाई
घिर आई
साँझ... गहराई

चूमा माथ
लगा ज्यों
झुक गया आकाश।