समर्पण / विपिन चौधरी
घनघोर शुष्क सन्नाटे को
सौंपती हूँ
अपनी मर्मभेदी आवाज़ें।
इंद्रधनुष को एक और
आसमानी, संवेदी रंग।
जीवन को सौंपती हूँ
अधूरी मंत्रणाओं की परिक्रमा।
संवेदनाओं को
आँखों की तरलता।
अभिलाषाओं को समर्पित है
प्राण-प्रतिष्ठित मंत्र।
लगातार गाढ़े होते दुख
को अतुलनीय मुस्कान।
कविता को सौंपती हूँ
अब तक कमाए भावों की भाप।
प्रेम को सौंपती हूँ
अपना संचित दर्शन।
धरती को
नमक से लबरेज स्वेद।
थकी हुई पगडंडियों को
लौटते पाँवों का आश्वासन।
सरसराती हवाओं को
निश्चयों की खुशबू।
मौत को अब तक बचा कर रखी
धवल प्रकाशित आत्मा।
भूत, भविष्य, वर्तमान,
मिट्टी, खेत-खलिहान,
दीवारें, झरोखे, मोरपंखों,
पशु-पक्षियों, सपेरों-नटों,
अजनबियों-परिचितों,
सभी देखे-अनदेखे,
जाने-अनजाने
सभी को समर्पित हैं
मेरे ये भाव-पुंज।