समर्पण / शर्मिष्ठा पाण्डेय
जीवन पथ पर कभी तुम जो थके
मैं शीतल जल, बन आउंगी
बुझा सकी ना प्यास तेरी
तो, थके पाँव धो जाऊँगी
जो, कभी लक्ष्य से भटके तुम
बन, प्रकाश पुंज मैं छाऊंगी
जो दूर किया ना अन्धकार
मैं आशा-दीप जलाऊंगी
जो लिखोगे तुम युगकाव्य नए
मैं ऋचाओं में ढल जाऊँगी
बन सकी न मैं प्रेरणा तो क्या
शब्दों में घुल-मिल जाऊँगी
तुम नव-जीवन के स्वप्न बुनो
मैं नींदों में बस जाऊँगी
मैं हूँ यथार्थ से परे सही
आभास नए दे जाऊँगी
उन्मुक्त पवन से बहोगे तुम
मैं सुगंध बन लहराऊंगी
ना, खिली तेरे उपवन तो क्या
गुलदान में शोभा पाऊँगी
तुम वीणा की झंकार बनो
मैं प्रणय राग बन जाऊँगी
जो बन न सकी स्वरलहरी शपा
श्रुतियों में हिल-मिल जाऊँगी
माना, ये मार्ग प्रशस्त नहीं
विधि खेलों के अभ्यस्त नहीं
तुम भाग्य विधाता स्वयं बनो
मैं स्याही अमिट बन जाऊँगी