समर्पिता / महेश सन्तोषी
उस दिन मैंने अपना शरीर स्वेच्छा से तुम्हारे आगे बिछा दिया था,
पर तुमने उसे बिना छुए
वैसा का वैसा ही मुझे लौटा दिया था, और कहा था -
‘तुमने मुझसे मेरे शरीर के लिए
और केवल मेरे शरीर का नहीं,
मुझे मेरी सम्पूर्णता में प्यार किया था,’
मैं विस्मित थी,
तुम्हारे अन्दर और, बाहर का पुरुष
पौरुष और प्यार कितने निस्वार्थ थे!
और तुम्हारे आगे बिछा हुआ शरीर उसके जीवित साक्ष्य थे,
वे दिन अब वर्षों पीछे छूट गये,
और मेरा शरीर भी समय के साथ
बहुत कुछ टूट गया,
पर, उस दिन के समर्पण की बार-बार उत्तर माँगती स्मृतियाँ
मेरे मन मे बराबर बनी रहीं,
तब मैं समर्पिता होकर भी, तुम्हारे स्पर्शों से अनछुई, अछूती ही रही,
पर तुम्हारे प्यार का कद, प्यार की ऊँचाईयाँ
मेरे मन में वैसी की वैसी बनी रहीं,
क्योंकि उसकी नींव में, मेरा शरीर नहीं रहा
मैं सम्पूर्ण में रही,
मैं सोचती हूँ एक समर्पिता की अस्मिता,
तुम्हारी बाँहों की सक्रिय सीमाओं में न सही
तुम्हारे प्राणों की अथाह असीमताओं में
प्रकाशित रही, स्थिर बनी रही।’