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समर निंद्य है / भाग ६ / रामधारी सिंह "दिनकर"

क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
अगणित अभी यहाँ हैं,
बढे़ शान्ति की लता हाय,
वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?

शान्ति-बीन तब तक बजती है
नहीं सुनिश्चित सुर में,
स्वर की शुद्ध प्रतिध्वनि जब तक
उठे नहीं उर-उर में।

यह न बाह्य उपकरण, भार बन
जो आवे ऊपर से।
आभा की यह ज्योति, फूटती
सदा विमल अंतर से।

शान्ति नाम उस रुचिर सरणि का
जिसे प्रेम पहचाने,
खड्ग-भीत तन ही न,
मनुज का मन भी जिसको माने।

शिवा-शान्ति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में;
सदा जन्म लेती वह नर के
मन:प्रान्त निस्पृह में।

गरल-द्रोह-विस्फोट-हेतु का
करके सफल निवारण,
मनुज-प्रकृति ही करती शीतल
रूप शान्ति का धारण।

जब होती अवतीर्ण शान्ति यह,
भय न शेष रह जाता,
शंका-तिमिर-ग्रस्त फिर कोई
नहीं देश रह जाता।

शान्ति ! सुशीतल शान्ति ! कहाँ
वह समता देने वाली?
देखो, आज विषमता की ही
वह करती रखवाली।

आनन सरल, वचन मधुमय है,
तन पर शुभ्र वसन है,
बचो युधिष्ठिर ! इस नागिन का
विष से भरा दशन है।

यह रखनी परिपूर्ण नृपों से
जरासन्ध की कारा,
शोणित कभी, कभी पीती है
तप्त अश्रु की धारा।

कुरुक्षेत्र में जली चिता जिसकी,
वह शान्ति नहीं थी;
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली,
वह दुष्क्रान्ति नहीं थी।

थी परस्व-ग्रासिनी भुजंगिनी,
वह जो जली समर में,
असहनशील शौर्य था, जो
बल उठा पार्थ के शर में।

नहीं हुआ स्वीकार शान्ति को
जीना जब कुछ देकर,
टूटा पुरुष काल-सा उस पर
प्राण हाथ में लेकर।

पापी कौन ? मनुज से उसका
न्याय चुराने वाला ?
याकि न्याय खोजते विघ्न का
सीस उड़ाने वाला?