भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समांतर / ऋचा दीपक कर्पे
Kavita Kosh से
					
										
					
					उम्मीदें तुमसे कुछ थी ही नही
तो नाउम्मीदी की कोई वजह भी नहीं
ना ही तुमने दिखाए ऐसे कुछ सपने
जिनके टूट जाने का डर हो! 
ना मुझसे दूर हो तुम 
ना पास हो, 
लेकिन, इस वक्त मेरे साथ हो.. 
हमेशा रहोगे या नही 
ऐसा कोई वादा तुमने किया नही है
और चले जाओगे छोड़कर
ऐसा मुझे लगता तो नही है
तुम आज हमसफ़र हो मेरे
चल रहे हैं हम 
अपनी-अपनी धूप अपने रंग, 
अपना आसमान साथ लिए 
समांतर रेखाओं की तरह
यह जानते हुए कि
समांतर रेखाएं भी कभी मिली हैं कहीं!
	
	