समाज, प्रेम को स्वीकार नहीं करता / मनीष यादव
समाज, प्रेम को स्वीकार नहीं करता
किंतु दाँत चियारते हुए कई व्यक्तियों के मुँह से
विवाह बाद के प्रेम के किस्से सुनना स्वीकार करता है.
सात बार के चक्कर काट के बँधे
जबरदस्ती के बंधन से उब चुकी स्त्री
जब मुक्ति चाहती है
तो अक्सर सबसे पहले चरित्र का प्रमाण पत्र औरतों को, औरतों के द्वारा ही दिया जाता है.
स्वभाव और चरित्र
दुनिया के किसी भी इंसान में अच्छे या बुरे हो सकते हैं
और इसे जाने बिना जब विवाह संभव है
तो मेरा प्रश्न है
इसे जान लेने के पश्चात
ऐसे रिश्तो से आज़ादी में संशय क्यों?
बिना प्रेम के किसी रिश्ते में बने रहना
ट्रेन में बैठकर नहीं ,
ट्रेन के सामने पटरी पे बैठ यात्रा के समान है
जिसके उपरांत खुद के अस्तित्व की मृत्यु जरूर होगी
चाहता हूँ
मेघ गर्जन के पहले आये चमकीले प्रकाश की तरह
कविताओं में भाषा का एक प्रहार आए
और झूलस जाए समाज के
सारे लिखे चरित्र के मापदंड
क्योंकि सिर्फ विमर्श करने से
कहीं ना कहीं से तो धीमे स्वर में आवाज आती ही रहेगी
“तुम सही कह रहे हो, मुझे आज़ाद होना है”