समाधान खोज रहे अनगिनत सवाल / हरीश प्रधान
व्यर्थ खड़े राहों में
सम्भावित चाहों में
हिलाओ न खड़े-खडे, रेशमी रूमाल
समाधान खोज रहे अनगिनत सवाल।
स्वारथ का भँवर जाल, सबके सब डूबे हैं
बौना हो रहा सत्य, झूठ की बन आयी है
चारवाक दर्शन है, युवावर्ग अलसाया–
घुटन औ निराशा की, मदहोशी छायी है
मौन खड़े रहने से, चित्र यही तो होगा
आँख मूँद लेने से, रूप नहीं बदलेगा
देश खड़ा चौराहे, विघटन का संकट है
चुनौतियों स्वीकारों, समय नहीं ठहरेगा
अराजक हवाओं ने
व्यवस्था को घेरा है
आओ सब मिल काटें, चक्रव्यूही चाल
समाधान खोज रहे, अनगिनत सवाल।
महँगाई का नर्तन, आँगन में द्रुत लय से
धरोहर ग़रीबी की कब तलक संजोओगे
कर्म और निष्ठा, ईमान की जला होली
दिवाली अभावों की, कब तलक मनाओगे
गुडों को आज़ादी, शराफत मरी जाती
ऐसी आज़ादी को, कब तलक बढ़ाओगे
सामाजिक न्याय नहीं, समता से दूरी है
शोषण की त्रासदी, कब तलक उठाओगे?
अमीरी ग़रीबी की
खाईयाँ मिटाने को
जगर-मगर कर डालो, सर्जन की मशाल
समाधान खोज रहे, अनगिनत सवाल।
नयी किरण फूटी, संत्रास के कुहासे से
क्रोधित तरूणाई ने सौगंध अब खायी है
देश नयी करवट ले, हुंकारे लेता है
भ्रष्ट कदाचारी की, शामत अब आयी है।
कृत्रिम अभावों से, जीना दुश्वार हुआ
करने या मरने की, वेला अब आयी है
जन-जन को जीवन में, सुलग उठी चिनगारी
शोला बन जाने की, नौबत अब आयी है।
काले धने वाले इन
रक्तबीज असुरों का
महाशक्ति बन करके, कांटो ये जाल।
समाधान खोज रहे, अनगिनत सवाल