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समाधि-एक/ तुलसी रमण

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दब गये धरती के
तमाम रास्ते
       पगडंडियाँ
रुक गये राजमार्ग

झुक गये
देवदार के कंधे
बान के सिर

किसी अँधेरे कोने जाकर
रजाई ओढ़ छिप बैठा
           ठिठुरा सूरज

स्तब्ध है
सहमी हवा

बूँद-बूँद जम गयी
         झालरों में
छत से टपकती जलधार

मंद-सी काँपती
क्षीण काय नदी
मंत्र कीलित
नाले के घराट

दू....र-देश
नदी के संग
 उड़ती गयी चिढिया।
अक्तूबर 1990